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अ॒ब्जामु॒क्थैरहिं॑ गृणीषे बु॒ध्ने न॒दीनां॒ रजः॑सु॒ षीद॑न् ॥१६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abjām ukthair ahiṁ gṛṇīṣe budhne nadīnāṁ rajassu ṣīdan ||

पद पाठ

अ॒प्ऽजाम्। उ॒क्थैः। अहि॑म्। गृ॒णी॒षे॒। बु॒ध्ने। न॒दीना॑म्। रजः॑ऽसु। सीद॑न् ॥१६॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:34» मन्त्र:16 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:26» मन्त्र:6 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे राजजन किसके तुल्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जैसे सूर्य (बुध्ने) अन्तरिक्ष में वर्त्तमान (नदीनाम्) नदियों के सम्बन्धी (रजःसु) लोकों में (सीदन्) स्थिर होता हुआ (अब्जाम्) जलों में उत्पन्न हुए (अहिम्) मेघ को उत्पन्न करता है, वैसे (उक्थैः) उसके गुणों के प्रशंसक वचनों से राज्य में जो ऐश्वर्य उनमें स्थिर होते हुए आप नदियों के प्रवाह के समान जिससे विद्या को (गृणीषे) कहते हो, इससे सत्कार करने योग्य हो ॥१६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे राजपुरुषो ! जैसे सूर्य वर्षा से नदियों को पूर्ण करता है, वैसे धन-धान्यों से तुम प्रजाओं को पूर्ण करो ॥१६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते राजजना किंवत् किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यथा सूर्यो बुध्ने वर्त्तमानो नदीनां रजःसु सीदन् अब्जामहिं जनयति तथोक्थै राष्ट्रे रजःसु सीदन् नदीनां प्रवाहमिव यतो विद्या गृणीषे तस्मात् सत्कर्तव्योऽसि ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अब्जाम्) अप्सु जातम् (उक्थैः) ये तद्गुणप्रशंसकैर्वचोभिः (अहिम्) मेघमिव (गृणीषे) (बुध्ने) अन्तरिक्षे (नदीनाम्) सरिताम् (रजःसु) लोकेष्वैश्वर्येषु वा (सीदन्) तिष्ठन् ॥१६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजपुरुषा ! यथा सूर्यो वर्षाभिर्नदीः पूरयति तथा धनधान्यैः प्रजा यूयं पूरयत ॥१६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजपुरुषांनो ! सूर्य जसा वृष्टी करून नद्या पूरित करतो तसे धनधान्याने तुम्ही प्रजेला पूरित करा. ॥ १६ ॥